हर दशक में सामाजिक हालातों के चलते नाटक खेलने और लिखने के तरीकों में बदलाव आता ही रहा है। बीते दशक में भारतीय राजनीति में हुए भारी बदलावों की परछाई कला के सभी क्षेत्रों पर भी पड़ी। नए-पुराने राजनैतिक विचारों से प्रभावित हो नाटकों ने भी अपनी कला के नए नियम ख़ोज निकाले। नए नाटककारों के लिए यह बेहद ज़रूरी है की वो इन नए नियमों की जानकारी रखें, नाटक लिखते समय अपने हिसाब से उन्हें इस्तमाल कर, विचारों को नाटक में तब्दील करें। इसी कोशिश में, संहिता मंच- २३ ने नाटककारों, निर्देशकों और एक्टर्स के लिए “विचार से आलेख तक” नामक एक डिस्कशन का २१ मई को आनलाइन आयोजन किया। जिसमें देश के जानेमाने निर्देशक नाटककार श्री रामू रामनाथन, ईरावती कार्णिक और अभिषेक मजूमदार शामिल हुए और आज के दौर में नाटक लिखने की प्रक्रिया (प्रोसेस) पर रोशनी डाली।
नाटककारों, निर्देशकों और एक्टर्स पर पड़े सामाजिक और व्यक्तिगत असर उनके नाटकों और किरदारों में हमेशा झलकतें हैं। हमारे पैनल के नाटककारों ने इन्हीं प्रभावों को अलग-अलग दृष्टिकोणों (प्रेस्पेक्टिव) से नाटक में उतारने की बात कही। तथ्य (फैक्ट) और काल्पनिकता (इमेजिनेशन) का संतुलन बनाए रखने को कहा ताकि दोनों में से कोई नाटक पर हावी न हो सके। मैं ख़ुद इंडियानोस्ट्रम थिएटर नामक एक नाटक कंपनी में बतौर एक्टर और नाटककार काम करता हूँ। इस लेख के आने वाले हिस्सों में मैं डिस्कशन में कही गई कुछ ज़रूरी बातें और उन पर अपने विचार आप सब से साझा करूंगा।
किसी भी नाटक या कहानी को लिखने के कुछ सुलझे हुए, तो कईं पेचीदा तरीके होते हैं। रामू रामनाथन ने विचारों को नाटक में ढालने के मूल नियमों से शुरुआत की। उन्होंने ‘हम्पटी-डम्प्टी’ नामक अंग्रेज़ी की मशहूर चार लाइनों की कविता के ज़रिए नाटक लिखने के तीन बुनियादी टूल्स – पात्र (कैरेक्टर्स), कथावस्तु (प्लॉट) और रसा (दर्शकों पर उसका असर) – के बारे में बताया और उन्हें नाटक का ढांचा (स्ट्रक्चर) कहा। नए नाटककारों के लिए यह ढांचा नाटक लिखने का काम आसन तो करता ही है, साथ ही साथ उसे रोचक भी बना देता हैं। रामू अपनी नाटकों पर पत्रिकारिता का एक गहरा असर समझते हैं जो उन्हें अपनी रिसर्च में तथ्यों (फैक्ट्स) को गहराई से नापने की तकनीक देता है। रामू नाटक में तथ्य और काल्पनिकता को बराबर बनाए रखने को ज़रूरी समझते हैं। मेरे हिसाब से एक नाटक का पूरे रूप से काल्पनिक होना या तथ्य होना गलतफहमी है। एक अच्छी कहानी के कैरेक्टर्स और प्लॉट किसी के व्यक्तित्व (पर्सनैलिटी) या किसी समुदाय का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) करने की ताकत ज़रूर रखते हैं जिस कारण से कईं नाटकों को सामाजिक, राजनैतिक, और निजी जीवन के करीब समझा जाता है। किसी नाटक में तथ्य, सत्य और असत्य की जांच दर्शकों पर ही निर्भर करता है। नाटककार के लिए अपनी कहानी का उद्देश्य (मोटिव) तय करना ज़्यादा बड़ी कामयाबी है बजाए सत्य-असत्य के पैराडॉक्स में खुद को बांधे रखने के। पात्र और प्लॉट के उद्देश्य आपके लेखन प्रोसेस को और मज़बूत करते हैं। आगे चल कर यहीं ताकत नाटक लिखने वाले को एक कुशल कारीगर बना देती है और वह नाटक की कहानी लिखने के बाकी टूल्स जैसे व्यंग, सब्टेक्स्ट वगैरह का और अच्छे से इस्तेमाल करता है।
मुश्किल राजनैतिक वक्त में एक नाटककार अपने विचारों को भाषा की प्रयोगशाला (लैबोरेटरी) में डालकर बार बार प्रयोग (एक्सपेरिमेंट) करता जाता है। रामू आगे मराठी नाटककार श्री कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर के नाटक ‘कीचक वध’ को याद करते हैं जिसने ब्रिटिश सरकार के सक्त सेंसरशिप कानूनों को चकमा दे कर महाभारत की कहानी के ज़रिए भारतीय समाज और ब्रिटिश सरकार पर एक गहरा तंज कसा और दर्शकों में खूब मशहूर भी रहा। रीसर्च और तथ्यों को कहानी के ढांचे में पिरोकर नाटक का उद्देश्य जो साबित करे, रामू के हिसाब से वह एक अच्छा नाटक कहलाता है।
आधुनिक प्रसार माध्यमों (मॉडर्न ब्रॉडकास्ट मीडियम्स) की वजह से दुनिया की घटनाओं से हम जितना खुद को पास समझते हैं उतना ही सूचना (इनफॉर्मेशन) की भरमार ने हमें कईं घटनाओं से दूर कर छोड़ा है। ऐसे समय में जब नाटककार किसी दूसरे देश की घटना से प्रभावित हो अपने नाटक के प्रोसेस के ज़रिए कल्चर और सिविलाइजेशन में हमदर्दी तलाश करने की कोशिश करता है तो प्रोसेस ही सबसे अहम हो जाता है। इरावती कार्णिक और अभिषेक मजूमदार, दोनों ही आज के समय के बेहद जाने-माने नाटककार हैं जिनके नाटकों में क्रॉस-कल्चरल जज़्बातों की तरफ गहरी सोच मिलती है। ‘थूक’, जिसका लेखन इरावती कार्णिक ने किया, और निर्देशन अभिषेक मजूमदार ने फेस्टीवल ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड फूड जस्टिस कैंपेन के तहत किया, वह ऐसी घटनाओं पर बना था जहाँ भुखमरी जैसी समस्या ने सामाजिक दंगों (रॉयट्स) का रूप ले लिया था। इरावती बतलाती हैं की कल्चरल रिसर्च से पैदा हुए इस प्रोसेस में कंट्रास्ट ने एक ज़रूरी भूमिका अदा की है:
क) नफीसा की कहानी देश में भोजन की कमी से छिड़े दंगो पर अधारित है जहाँ नफीसा अपनी खोई हुई बिल्ली की तलाश में जी-जान लगा देती है।
ख) नाटक की दूसरी कहानी में बंगाल भुखमरी के दौर में विंस्टन चर्चिल के निजी खानसामे (बावर्ची, जो एक काल्पनिक किरदार है) पर आधरित है जो घमंडी और ढीठ किस्म का आदमी है।
ग) तीसरी कहानी भारतीय मूल के अफ्रीकी जमींदारों पर आधारित है जो वहाँ के फूड क्राइसिस से वाकिफ होने के बावजूद अन्न की फसल के बजाए नींबू और ट्यूलिप की खेती करते हैं।
इन तीनों कहानियों में भुखमरी और दंगो जैसी बड़ी सामाजिक समस्या के सामने आम मगर अनोखे किरदार खड़े नज़र आते हैं, जिनके ज़रिए नाटक में घोर सटायर और फार्स पैदा होता है। इस स्टाइल के नाटकों में दो विरोधी परिस्थितियाँ (अपोज़िट सिचुएशन्स) दर्शकों की भावनाएं उजागर करती हैं और वे इन ऐतिहासिक घटनाओं के इंसानी पहलू के थोड़ा और करीब आ पाते हैं।
ईरा नाटक लिखने के प्रोसेस में एक्टर्स को महत्वपूर्ण हिस्सा बताती हैं। वे कईं दफे एक्टर्स के साथ इंप्रोवाइजेशन कर अपने नाटक को रूप देती हैं। ईरा नए नाटककारों को सलाह देती हैं की अपने पात्रों को बेहतर समझने के लिए उन्हें अलग-अलग परिस्थितियों (सिचुएशन्स) में धकेलें ताकि लेखक को पता चले की करैक्टर्स तकलीफ़देह हालातों में कैसा बरताव करते हैं। नाटक के किरदारों के फ़ैसले ही कहानी को एक दिशा और अंत देते हैं।
गुज़रे साल इंडियानोस्ट्रम में रहते हुए, डिवाइसिंग नामक प्रोसेस में मैं रहा। मेरा यकीन है की यह प्रोसेस एक्टर के अंदर के लेखक को सोचने-करने पर मजबूर कर उसे नाटक के और करीब लाता है।
डिस्कशन के आख़िरी भाग में अभिषेक मजूमदार नाटक की कहानी को खोजने के तरीकों की बात करते हैं। एक ये हो सकता है कि एक कहानी आपको अनोखी लगी है जिसे आप सुनाने को मजबूर हो रहें हो। कोई तस्वीर या आवाज़ हो सकती है जो आपके मन को कोई कहानी ढूंढने को मजबूर कर रही हो, कोई टॉपिक या मुद्दा हो सकता है जो आपको नाटक लिखने पर इंस्पायर कर रहा हो (जैसे की इरा का नाटक 'फूड क्राइसिस' के मुद्दे पर था) और कोई द्वंद (कॉन्फ्लिक्ट) या दुविधा (डिलेम्मा) हो सकता है जिसकी गेहराई में आप नाटक के ज़रिए जाना चाहते हों। अभिषेक मजूमदार के अनुसार नाटक अपने लेखक के लिए एक खोज है, जिसकी शुरूआत ऊपर दिए गए तरीकों से की जा सकती है। लेकिन प्रोसेस में एक कुशल नाटककार को अपनी कहानी से ये चार सवाल बार-बार पूछने चाहिए: किरदारों के पर्सनल सवाल क्या है जिनके सहारे कहानी आगे बढ़ती है? नाटक के राजनैतिक सवाल कौन से है? नाटक के फिलोसॉफिकल सवाल क्या हैं? और चौथा की नाटक के एस्थेटिक सवाल कौन से हैं जिससे आप नाटक बताने का स्टाइल और भाषा तय करतें हैं।
जहाँ रामू रामनाथन ने नए नाटककारों के लिए संदर्भ (कॉन्टेक्सट) और उद्देश्य (इनटेंड) पर ज़ोर देने की बात की वहीं ईरावती कार्णिक और अभिषेक मजूमदार ने अपने नाटकों के ज़रिए लिखने के नए अंदाज़ और उनके नियमों से पहचान कराई। तीनों रंगकर्मियों ने नाटक लिखने के अनुभव को रोमांचक और मीनिंगफुल कहा। यदी आप भी नाटक को विचार से आलेख में लाना चाहते हैं तो यह गहरी डिस्कशन आपके लिए ही है। अवश्य देखिए और अपने विचार हमसे साझा कीजिए।
You can read Ramu Ramanathan and Irawati Karnik’s plays on The Drama Library (www.thedramalibrary.com)
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